गढ़वाल और कुमाऊं की संस्कृति और इतिहास की दिलचस्प बातें
गढ़वाली भाषा लगभग 40 लाख लोगों द्वारा बोली जाती है और यह हिंदी के बहुत करीब है।
गढ़वाली भाषा इंडो आर्यन भाषा के पहाड़ी उपसमूह से संबंधित है। इस उपसमूह से संबंधित अन्य भाषाओं में उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बोली जाने वाली कुमाउनी भाषा और हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिमाचली भाषा शामिल है।गढ़वाली भाषा लगभग 40 लाख लोगों द्वारा बोली जाती है और यह हिंदी के बहुत करीब है। हालांकि कई लोगों द्वारा बोली जाने वाली गढ़वाली भाषा अपना महत्व खो रही है और तेजी से सिकुड़ रही है। इसके पीछे मुख्य कारण यह हो सकता है कि जैसे-जैसे लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं, संवाद की भाषा हिंदी हो जाती है और गढ़वाली केवल घर पर ही बोली जाती है। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे समय बीतता है, हिंदी इसकी जगह ले लेती है और अगली पीढ़ी इस भाषा से लगभग अनजान रह जाती है।
गढ़वाल और कुमाऊं का इतिहास (History of Garhwal & Kumaun)
गढ़वाल साम्राज्य: 888 ई. में स्थापित यह राज्य बाद में भारत में ब्रिटिश राज का हिस्सा बन गया। इस क्षेत्र के लोग अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदार थे। बाद में, जहाँ एक तरफ सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के एकीकरण की दिशा में काम कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ गढ़वाल के लोग खुद राजा को एक संप्रभु भारत की अवधारणा को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहे थे। 1949 में गढ़वाल के अंतिम शासक – मानवेंद्र शाह ने हार मान ली और गढ़वाल आधिकारिक तौर पर भारत का हिस्सा बन गया।
कुमाऊं क्षेत्र: इस बीच उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र पूरी तरह से युद्ध का मैदान बन गया था। अंग्रेजों के कब्जे से पहले इस क्षेत्र में 8 रियासतें थीं, जिनका पूरा नियंत्रण इस क्षेत्र पर था। पूर्वी गढ़वाल को नए कब्जे वाले कुमाऊं क्षेत्र से जोड़ दिया गया था। गढ़वाल की आबादी की तरह ही कुमाऊं के लोगों ने भी भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और महात्मा गांधी की शिक्षाओं और प्रेरणा से काफी प्रभावित हुए। यही वजह है कि यहां के लोगों ने तुरंत और बहुत ही स्वेच्छा से भारत की संप्रभुता को स्वीकार कर लिया।
गढ़वाल की संस्कृति (Culture of Garhwal)
गढ़वाल की संस्कृति स्वदेशी आबादी और समय-समय पर यहाँ बसने वाले अन्य प्रवासियों की परंपराओं का एक दिलचस्प मिश्रण प्रस्तुत करती है। इस क्षेत्र के स्थानीय लोग कई जनजातियों से जुड़े हुए हैं और अपनी आजीविका कमाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। लोक नृत्य और संगीत गढ़वाल के लोगों और संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।
धर्म और भाषा (Religious and Language)
गढ़वाली लोगों का मुख्य धर्म हिंदू धर्म है और अधिकांश आबादी ब्राह्मणों की है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषाएँ हिंदी, कुमाऊँनी, गढ़वाली, भोटिया और जौनसारी हैं।
मेले और त्यौहार (Fairs and festivals)
गढ़वाल के लोग सभी प्रमुख हिंदू त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं जैसे होली, दिवाली, मकर संक्रांति, बसंत पंचमी, विजयदशमी, फूल देई, हरेला, खतरुआ, बट सावित्री, जानोपुण्य, छिपला जाट आदि। इसके अलावा, बहुत सारे मेले भी लगते हैं। यहां कुंभ मेला, जौलजीबी मेला, नंदादेवी मेला, उत्तरायणी मेला और जागेश्वर मेला भी मनाया जाता है।
खाना (Food)
गढ़वाल क्षेत्र का स्थानीय व्यंजन सरल लेकिन पौष्टिक है जिसमें दालें, अनाज, चावल और मौसमी फल और सब्जियाँ शामिल हैं। क्षेत्र की कुछ स्थानीय खाद्य विशिष्टताएँ हैं: फन्नाह, काफुली, बाडी, रस, चुड़कानी में भट्ट, अरसा, गुलगुला, झंगोरा की खीर, कंडाली, फाणु और पलाऊ आदि।
लोग और भाषा (People and Language)
कुमाऊँ उत्तराखंड का प्रशासनिक क्षेत्र भी है, यहाँ की आम बोलचाल की भाषा हिंदी है और कुमाऊँ की मूल भाषा कुमाऊँनी है। कुमाऊँ के लोग 13 बोलियाँ बोलते हैं जिनमें कुमैया, गंगोला, सोरयाली, सिराली, अस्कोटी, दानपुरिया, जोहारी, चौगारख्याली, माझ कुमैया, खसपर्जिया, पछाई और रौचौभैसी शामिल हैं।भाषाओं के इस समूह को मध्य पहाड़ी भाषाओं के समूह के रूप में जाना जाता है। कुमाऊं अपने लोक साहित्य के लिए प्रसिद्ध है ।जिसमें मिथक, नायक, गायिका ,वीरता, देवी देवता और रामायण महाभारत के लिए गए पत्र भी शामिल हैं।
नृत्य (Dance)
कुमाऊं का सबसे लोकप्रिय नृत्य रूप छलारिया के नाम से जाना जाता है और यह क्षेत्र की मार्शल परंपराओं से संबंधित है। सभी त्यौहार बहुत उत्साह के साथ मनाए जाते हैं और आज भी ऐसे पारंपरिक नृत्य रूपों को देखा जा सकता है।
त्यौहार (Festival)
कुमाऊँनी लोग ज़्यादातर फसल कटाई के मौसम के बाद आराम करते हैं, नाचते-गाते हैं और त्यौहार मनाते हैं। कुमाऊँ में हर संक्रांति से जुड़ा कोई न कोई मेला या त्यौहार होता है। फूलदेई, बिखौती, हरेला, खतरुआ और घुघुतिया इस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा मनाए जाने वाले त्यौहार हैं। अन्य त्यौहारों का संबंध चंद्रमा से होता है, इसलिए ग्रेगोरियन कैलेंडर में तिथियाँ अक्सर बदलती रहती हैं। कुमाऊँ में दशहरा उत्सव की शुरुआत रामलीला के प्रदर्शन से होती है, जो अपने आप में अनूठा है क्योंकि यह नाट्य परंपराओं पर आधारित राम की कथा के संगीतमय प्रस्तुतीकरण पर आधारित है।
कुमाऊँनी होली की खासियत यह है कि यह संगीतमय होती है, चाहे वह बैठकी होली हो, खड़ी होली हो या महिला होली। बैठकी और खड़ी होली इस मायने में अनोखी हैं कि जिन गीतों पर वे आधारित हैं, उनमें माधुर्य, मस्ती और आध्यात्मिकता का स्पर्श होता है।
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