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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर जाने देवभूमि उत्तराखंड की कुछ प्रसिद्ध महिलाओं के बारे मे

womanDay

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हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है । महिला दिवस मनाने का मकसद महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना है । महिला दिवस के अवसर पर चलिए जानते हैं उत्तराखंड की उन महिलाओं के बारे में जिन्होंने अपने हिम्मत और हौसले के दम से यह साबित कर दिया कि महिलाएं पुरुषों से कम नहीं है –

गौरा देवी –

गौरा देवी

गौरा देवी का जन्म देवभूमि उत्तराखंड के चमोली जिले में 1925 में हुआ था । जब इनकी उम्र मात्र 11 वर्ष थी तब इनका विवाह रैंडी गांव के मेहरबान सिंह के साथ कर दिया गया । जब ये 22 वर्ष की थी तब इनके पति का देहांत हो गया और यह विधवा हो गई । उस समय इनका एकलौता पुत्र चंद्र सिंह मात्र ढाई साल का था । 1970 में अलकनंदा में बाढ़ है जिससे लोगों के मन में पर्यावरणीय सोच जन्म ली । साथ ही 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद मोटर मार्ग की वजह से पर्यावरण संकट में बढ़ने लगा और लोग बाढ़ से जब प्रभावित हुए तो पहाड़ों के प्रति उनके मन में चेतना जागी ।
गोरा देवी को 1972 में मंगल दल की अध्यक्ष बनाया गया जो पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा हुआ था । 23 मार्च 1974 को रैंडी गांव में पेड़ों के कटान का विरोध किए जाने के लिए गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ । इस रैली में महिलाओं का नेतृत्व गौरा देवी ने किया और यहीं से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई । गौरा देवी को चिपको आंदोलन की जननी के तौर पर भी जाना जाता है । इनकी मृत्यु 4 जुलाई 1991 में हो गई । लेकिन वनपुत्री के रूप में वनों की रक्षा के उनके संकल्प की वजह से गौरा देवी ने महिलाओं को एक तरह से यह संदेश दिया कि यदि वे संगठित होकर कोई भी कार्य करें तो महिला हर काम करने में सक्षम हो सकती है । गौरा देवी को 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार भी प्रदान किया गया था ।

बछेंद्री पाल –

बछेंद्री पाल

एवरेस्ट विश्व की सबसे ऊंची चोटी है । माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वाली प्रथम महिला के रूप में बछेन्द्री पाल को जाना जाता है । इन्होंने एक नहीं बल्कि 2 बार माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा फहराया है । बछेन्द्री पाल का जन्म 24 मई 1954 को उत्तराखंड के गढ़वाल जिले में हुआ था । इनके पिता किशनपाल सिंह एक साधारण व्यापारी थे । ये पांच भाई बहन थी । बछेन्द्री पाल बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में एक्टिव रहती थी । बचपन से ही इन्हें पर्वतारोहण का शौक था । बछेन्द्री पाल ने मात्र 12 साल की उम्र में स्कूल द्वारा एक पिकनिक के प्रोग्राम में 13,130 फीट की ऊंचाई बड़ी आसानी से चढ़ी  थी और इसी के साथ उनके मन में पर्वतों के प्रति प्रेम बढ़ता गया । बछेंद्री पाल हमेशा से पर्वतारोही बनना चाहती थी लेकिन उनके माता-पिता को यह पसंद नहीं था । इनके पिता चाहते थे कि ये टीचर बने और शादी कर ले ।लेकिन ये थोड़ा जिद्दी थी और उन्होंने उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट आफ माउंटेनियरिंग में दाखिला लिया और प्रशिक्षण केंद्र में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए बछेन्द्री पाल को सर्वश्रेष्ठ छात्रा घोषित किया गया ।

इन्होंने प्रशिक्षण के दौरान 1982 में 21900 फीट की गंगोत्री की ऊंचाई तथा 19091 फिट ऊंचे रदुगरिया शिखर पर चढ़ाई की थी । उनकी इसी काबिलियत के दम पर इन्हें नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन में इंस्ट्रक्टर की नौकरी मिल गई और इस दौरान प्रशिक्षण देते हुए ये मानसिक रूप से एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए मजबूत हो गई । भारत सरकार के 1984 में ‘एवरेस्ट अभियान 84’ में बछेन्द्री पाल का चयन हो गया । इस दल में 11 पुरुष और 6 महिलाएं थी । बछेन्द्री पाल का अभियान दल 15-16 मई को 24,000 फीट की ऊंचाई चढ़ाई कर लिया था लेकिन उसी दौरान एक धमाका हुआ और जहां पर इनके साथियों ने शिविर लगाया था उसके ऊपर के हिमखंड टूटकर इन लोगों के ऊपर गिरने लगा । किसी तरह से पर्वतारोहियों ने खुद को बचाया लेकिन इस दौरान कई लोग घायल हो गए, बाद में उन्हें नीचे पहुंचा दिया गया । 22 मई को नया पर्वतारोही दल माउंटेन फतेह के लिए निकला जिसमें बछेंद्री पाल भी शामिल थी । बछेंद्री पाल इस नए दल में एकमात्र महिला थी और 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बर्फीली हवाओं में उन्होंने अपनी चड़ाई जारी रखी । नतीजा इन्होंने 23 मई 1984 को दोपहर के 1:07 बजे भारत का तिरंगा लहराया और एवरेस्ट फतह करने वाली भारत की पहली महिला तथा विश्व की पांचवीं महिला बन गई । 1993 में बछेंद्री पाल के नेतृत्व में भारत और नेपाल की महिलाओं ने फिर से एवरेस्ट की चोटी पर पहुंची और इस तरह बछेन्द्री पाल दूसरी बार माउंट एवरेस्ट फतह किया था ।

डॉ प्रतिभा नैथनी –

डॉ प्रतिभा नैथनी

प्रतिभा नैथनी की पहचान एक समाज सेविका के रूप में है । डॉ प्रतिभा नैथानी मूल रूप से उत्तराखंड के पौड़ी की रहने वाली हैं तथा मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से पॉलिटिकल साइंस की प्रोफ़ेसर है । इन्होंने टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों द्वारा अश्लीलता के प्रसारण के खिलाफ लड़ाई लड़ी । इन्होंने मुंबई हाईकोर्ट में आईपीएल डालकर टेलीविजन चैनलों के लिए सेंसर लगवाया । इनका मानना था कि जिस तरीके से फिल्मों में अश्लीलता रोकने के लिए सेंसर बोर्ड है उसी तरीके से टेलीविजन के लिए भी सेंसर बोर्ड का गठन होना चाहिए क्योंकि टेलीविजन को बच्चे, बड़े बुजुर्ग हर उम्र के लोग देखते हैं और टेलीविजन हर किसी के घर में होना आम बात है इस लिए इस पर गंदगी का प्रसारण रुकना चाहिए ।

इनके प्रयासों के बदौलत ही आज विदेशी चैनलों को भी हमारे देश के कानून का कड़ाई से पालन करना पड़ता है । इन्हें देश भर में तेजाब हमले से पीड़ित महिलाओं की सर्जरी करवाने के लिए भी जाना जाता है । इन्होंने उत्तराखंड के गांव की महिलाओं के लिए तथा उनके हक के लिए काफी काम किए हैं । इन्हें साल 2005 में इंडिया टुडे द्वारा देश की 29 सबसे पावरफुल महिलाओं की सूची में स्थान दिया गया था । इन्हें मुंबई की मेयर द्वारा इन्हें उत्कृष्ट सामाजिक कार्य के लिए सम्मानित किया जा चुका है । नंदा देवी राजजात यात्रा कुछ लोग कर पाते हैं और उन चुनिंदा लोगों में डॉ प्रतिभा नैथानी का नाम भी आता है । इन्हें नंदा देवी राजजात की यात्रा पूरी करने वाली प्रथम महिला के तौर पर भी जाना जाता है ।

ममता रावत –

ममता रावत

ममता रावत नेहरू इंस्टीट्यूट आफ माउंटेनियरिंग में बतौर पार्ट टाइम ट्रेनर काम करती थी । ममता रावत उन लोगों के लिए एक फरिश्ता बनकर पहुंची थी जो 2013 में उत्तराखंड में आई आपदा के दौरान फस गए थे, इस दौरान उन्होंने सैकड़ों लोगों की जान बचाई । उत्तराखंड में जब बाढ़ की घटना हुई थी तब ममता रावत अपने गांव में थी, इस दौरान उनके पास एक फोन कॉल आया कि हिमालय पर ट्रैकिंग के लिए स्कूली बच्चों का एक समूह तेज बारिश में फस गया है, बच्चों को सुरक्षित निकालने के लिए ममता तेजी से वहाँ पहुंची और उन सब को सुरक्षित ले आई, साथ ही बाढ़ में फसे लोगों को भी बचाया । इस तरह उन्होंने सैकड़ों लोगों की जान बचाई थी ।

ममता जब मात्र 10 साल की थी तभी इनके पिता की मौत हो गई थी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कड़ी मेहनत की । ममता जब नेहरू इंस्टीट्यूट आफ माउंटेनियरिंग में बतौर प्रशिक्षक पार्ट टाइमकाम कर रही थी तो इसी दौरान वो ट्रेकिंग पर आने वाले लोगों के लिए वो बतौर गाइड भी काम करने लगी थी । ममता ने जब यह पेशा अपनाया तो समाज के लोगों ने विरोध किया कि यह पुरुषों का काम, लेकिन ममता ने अपने बहादुरी और पक्के इरादे की बदौलत इस प्रोफेशन में बनी रही और 2013 में आई उत्तराखंड बाढ़ में अपनी जान की बाजी लगाकर सैकड़ों जान बचाई ।

अनुपमा जोशी –

अनुपमा जोशी

अनूपमा जोशी मूल रूप से देहरादून की रहने वाली है । अनुपमा जोशी ने महिलाओं के स्थाई कमीशन के लिए काफी संघर्ष किया और नतीजा यह कि अब 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन दे दिया गया । 1993 में भारतीय एयरफोर्स जॉइन करने वाली महिलाओं में अनुपमा जोशी का नाम भी शामिल है । मालूम हो कि वायु सेना में महिला अधिकारियों के लिए 1993 में पहला मैच बनाया गया था । अनुपमा जोशी वो महिला हैं जिन्होंने सेना भर्ती में लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई थी ।

अनुपमा जोशी के पिता इंडियन फॉरेस्ट सर्विस में थे तथा मातहत लोगों को प्रमोट करने के लिए उन्होंने काफी काम किया था । जब इन्होंने फोर्स जॉइन किया तो इस दौरान उनके पिता, भाई और फिर पति ने इन्हें काफी सपोर्ट किया । अनुपमा महिला और पुरुष की बराबरी का समर्थन करने के लिए जानी जाती हैं । सेना में महिलाओं को परमानेंट कमिशन देने के संदर्भ में इनका मानना था कि महिलाओं को लिंग के आधार पर नहीं बल्कि उनकी योग्यता के आधार पर परमानेंट कमिशन मिलना चाहिए । अनूपमा जोशी उन बंधनों से आजादी की समर्थक है जो सिर्फ महिलाओं के लिए बनाए गए हैं, वो ऐसे बंधनों को हो खत्म करना चाहती हैं जो महिलाओं की सोच और पसंद पर बंदिश लगाते हैं ।


ये सभी महिलाएं अपनी हिम्मत और दृढ़ इच्छाशक्ति की वजह से आज अन्य महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकती है । महिला एक ऐसी शख्सियत होती है जिसकी जिंदगी में तमाम तरह की परेशानियां आती हैं इसके बावजूद वह आपने हिम्मत और दृढ़ इच्छा के दम पर कोई भी मुकाम हासिल करने और हर चुनौतियों का सामना करने का दम रखती है । महिला और पुरुष में कुछ प्राकृतिक अंतर होते है लेकिन किसी भी मामले में महिलाएं पुरुषों से कम नही है


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