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History of Uttarakhand | उत्तराखण्ड का इतिहास

History of Uttarakhand | उत्तराखण्ड का इतिहास | Uttarakhand History in Hindi

उत्तराखण्ड का इतिहास पौराणिक है। स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:-

खण्डाः पञ्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः॥

अर्थात् हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल (कुमाऊँ), केदारखण्ड (गढ़वाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश) और सुरम्य कश्मीर पाँच खण्ड है।

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खस आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी।

उत्तराखण्ड  का शाब्दिक अर्थ उत्तरी भू भाग का रूपान्तर है। इस नाम का उल्लेख प्रारम्भिक हिन्दू ग्रन्थों में मिलता है, जहाँ पर केदारखण्ड (वर्तमान गढ़वाल) और मानसखण्ड (वर्तमान कुमांऊँ) के रूप में इसका उल्लेख है। उत्तराखण्ड प्राचीन पौराणिक शब्द भी है जो हिमालय के मध्य फैलाव के लिए प्रयुक्त किया जाता था। उत्तराखण्ड “देवभूमि” के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह समग्र क्षेत्र धर्ममय और दैवशक्तियों की क्रीड़ाभूमि तथा हिन्दू धर्म के उद्भव और महिमाओंं की सारगर्भित कुंजी व रहस्यमय है।पौरव, कुशान, गुप्त, कत्यूरी, रायक, पाल, चन्द,परमार व पयाल राजवंश और अंग्रेज़ों ने बारी-बारी से यहाँ शासन किया था।

 

रूपरेखा

यद्यपि ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खश आदि जातियां भी हिमालयी क्षेत्र में निवास करती थी, परन्तु पौराणिक ग्रन्थों व इतिहास में केदारखण्ड व मानसखण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख सर्वविदित है।

इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है। मानसखण्ड का कुर्मांचल व कुमांऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमांऊँ पर आक्रमण कर कुमांंऊँ राज्य को अपने आधीन कर दिया।

गोरखाओं का कुमांऊँ पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमांऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमांऊ को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमांऊँ पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों (किले) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदारखण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर गढ़वाल राज्य को अपने अधीन कर लिया। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहायता मांगी।

अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापिस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की।

कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन 1815 से देहरादून व पौडी गढवाल (वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेज़ो के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।

गोरखा युद्ध

सन् 1814 से 1816 तक चला अंग्रेज-नेपाल युद्ध (गोरखा युद्ध) उस समय के नेपाल अधिराज्य (वर्तमान संघीय लोकतांत्रिक गण राज्य) और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच में हुआ था। जिसका परिणाम सुगौली संधि में हुआ और नेपाल को अपना एक-तिहाई भूभाग ब्रिटिश हुकुमत को देना पडा। इस युद्धसे अमर सिंह थापा, बलभद्र कुँवर एवम् भक्ति थापा के सौर्य, पराक्रम एवम् राष्ट्रप्रेम की कहानी अंग्रेज़ी राज्यों मे प्रचलित हुई।

शताव्दियों से काठमाडौं उपत्यका के तीन अधिराज्य
१. काठमाडौं
२. पाटन
३. भादगाउँ (वर्तमान में भक्तपुर)

बाहरी खतरा को बिना भांपे आपस में लडाईं करते रहे| इसी संकीर्णता के कारण सन् 1769 में इस काठमाडौं उपत्यका में गोरखा के राजा पृथ्वीनारायण शाह ने आक्रमण कर कब्जा किया, फलस्वरुप वर्तमान नेपाल देश की स्थापना हुई।

सन् 1767 में वहां के राजाओं ने ब्रिटेन अधिराज्य के विरुद्ध लडाईं करने के लिये गोरखा राज्य से सहायता मागे| कप्तान किन्-लोक् के नेतृत्व में 2500 सेना विना तैयारी लडाईं के लिये भेजे गए| चढाई विपत्ति जनक हुई, ब्रिटिश की कमजोर सेना को गोरखा सेना ने आसानी से जीत लिया। काठमाण्डु उपत्यका के इस विजय के बाद सम्पूर्ण क्षेत्र के लिये गोरखा शासन ने अन्य क्षेत्रों के लिये विस्फोटक शुरुवात किया। सन् 1773 में गोरखा सेना ने पूर्वी नेपाल पर कब्जा किया और सन् 1788 में सिक्किम के पश्चिमी भाग में अधिकार जमाया| पश्चिम के तरफ महाकाली नदी तक सन् 1790 में लिया। इस के बाद सुदूर पश्चिम कुमांऊँ क्षेत्र और इसकी राजधानी अल्मोड़ा को गोरखा राज्य में मिलाया गया|

सुगौली संधि

सुगौली संधि, ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच हुई एक संधि है, जिसे 1814-16 के दौरान हुये ब्रिटिश-नेपाली युद्ध के बाद अस्तित्व में लाया गया था। इस संधि पर 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्ष्रर किये गये और 4 मार्च 1816 का इसका अनुमोदन किया गया। नेपाल की ओर से इस पर राज गुरु गजराज मिश्र (जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे) और कंपनी ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये थे।

संधि के तहत, नेपाल ने अपने भूभाग का लगभग एक तिहाई हिस्सा गंवा दिया जिसमे नेपाल के राजा द्वारा पिछ्ले 25 साल में जीते गये क्षेत्र जैसे कि पूर्व में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही और दक्षिण में तराई का अधिकतर क्षेत्र शामिल था। तराई भूमि का कुछ हिस्सा 1816 में ही नेपाल को लौटा दिया गया। 1860 में तराई भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सहायता करने की एवज में पुन: लौटाया गया।

गोरखा शासन से राज्य स्थापना तक का घटना क्रम

उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ। वास्तव में यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25 वर्षीय सामन्ती सैनिक शासन का अंत भी था।

मध्यकाल में उत्तराखण्ड

कत्यूरी राजा वीर देव के पश्चात कत्युरियों के साम्राज्य का पूर्ण विभाजन हो गया तथा यह न केवल अपनी जाति के अपितु कुछ बाहरी कबीलों के भी अधीन बट गया। गढ़वाल का एक बहुत बड़ा भाग कत्युरियों के हाथों से निकल गया तथा शेष कुमांऊॅं क्षेत्र छह कबीलों में बँट गया। तत्पश्चात कतुरिस साम्राज्य को नेपाली राजाओं अहोकछला (1191 ईस्वी) तथा कराछला देव (1223 ईस्वी) ने अपने राज्य में मिला लिया। यह दोनों आक्रमण विभिन्न कबीलों में परस्पर शत्रुता के कारण निर्णायक सावित हुए। तत्पश्चात संपूर्ण साम्राज्य 64 अथवा कुछ मतों के अनुसार 52 गढ़ों में विभाजित हो गया। इन सभी गढ़ों के सरदार अक्सर आपस में झगड़ते रहते थे। सोलहवी शताब्दी के प्रारंभ में कनक पाल के वंशज अजय पाल ने जो की चांदपुर गढ़ी कबीलों का सरदार था, सम्पूर्ण गढ़वाल को एक कर दिया।

पांडुकेश्वर की तांबे की प्लेटें (ताम्रपत्र) दर्शाती हैं कि इस बेराज की राजधानी कार्तिकेयपुरा नीति-माना घाटी में और आगे चलकर कात्यूर घाटी में स्थित थी। एटकिंशन ने काबुल की घाटी से इस वंशज की उत्पत्ति का पता लगाया तथा उनकों काटोरों से जोड़ा।

गैरौला और नौटियाल के अनुसार, कात्यूरी छोटी खासा जनजाति थी जो मूलतः गढ़वाल के उत्तर में जोशीमठ में रहती थी तथा बाद में कुमाऊं की कात्यूर घाटी में चली गई। कात्यूरियों ने पौरवों और तिब्बती हमलावरों के पतन के बाद अपनी ताकत बढ़ाई तथा 7 वीं शताब्दी के अन्त और 8 वीं शताब्दी के आरम्भ में वे स्वतन्त्र हो गए।

कुमांऊँ का इतिहास (History of Kamaon)

कुमाऊँ मण्डल के जिले, 1909

कुमांऊँ शब्द की व्युत्पति के सम्बध में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं। भाषा की दृष्टि से यही उचित जान पड़ता है कि यह शब्द मूलतः संस्कृत में कूर्म है। चम्पावत के समीप 2196 मीटर ऊँचा कान्तेश्वर पर्वत है जिसके सम्बध में मान्यता है कि भगवान विष्णुअपने द्वितीय अवतार (कूर्मावतार) में इस पर्वत पर तीन वर्ष तक रहे। तब से वह पर्वत कान्तेश्वर के स्थान पर कूर्म-अंचल (कूर्मांचल) नाम से जाना जाने लगा। इस पर्वत की आकृति भी कच्छप की पीठ जैसी जान पड़ती है। सम्भवतः इसी कारण इस क्षेत्र का नाम कूर्मांचल पड़ा होगा। पहले शायद कूर्म शब्द प्रयोग में आता होगा, क्योंकि कूर्म शब्द का प्रयोग स्थानीय भाषा में बहुतायत से मिलता है। कूर्म के स्थान पर कुमूँ शब्द निष्पन्न होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ की बोलियों में उकारान्तता अधिक पाई जाती है। कालान्तर में साहित्यिक ग्रन्थों, ताम्रपत्रों में कुमूँ के स्थान पर कुमऊ और उसके बाद कुमाऊँ शब्द स्वीकृत हुआ। संस्कृत ग्रन्थों में भी कूर्मांचल शब्द का प्रयोग मिलता है।

प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में कुमांऊँ को मानसखण्ड कहा गया। अक्टूबर 1815 में डब्ल्यू जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमांऊँ कमिश्नर का पदभार संभाला। उनके पश्चात क्रमशः बैटन, बैफेट, हैनरी, रामसे, कर्नल फिशर, काम्बेट, पॉ इस डिवीजन के कमिश्नर आये तथा उन्होंने भूमि सुधारो, निपटारो, कर, डाक व तार विभाग, जन सेहत, कानून की पालना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार आदि जनहित कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

अंग्रेजों के शासन के समय हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा वहां से कुमांऊँ के रामनगर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के लिये सड़कों का निर्माण हुआ और मि. ट्रैल ने 1827-28 में इसका उदघाटन कर इस दुर्गम व शारीरिक कष्टों को आमंत्रित करते पथ को सुगम और आसान बनाया।

कुछ ही दशकों में गढ़वाल ने भारत में एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया तथा शूरवीर जातियों की धरती के रूप में अपनी पहचान बनाई। लैण्डसडाउन नामक स्थान पर गढ़वाल सैनिकों की ‘गढ़वाल राइफल्स’ के नाम से दो रेजीमेंटस स्थापित की गईं।

निःसंदेह आधुनिक शिक्षा तथा जागरूकता ने गढ़वालियों को भारत की मुख्यधारा में अपना योगदान देने में बहुत सहायता की। उन्होंने आजादी के संघर्ष तथा अन्य सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। आजादी के पश्चात 1947 ई. में गढ़वाल उत्तर प्रदेश का एक जिला बना तथा 2001 में उत्तराखण्ड राज्य का जिला बना।

अल्मोड़ा (Almora)

प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा 1568 में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। कल्याण चंद द्वारा।तथ्य वांछित चंद राजाओं के समय में इसे राजपुर कहा जाता था। ‘राजपुर’ नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।

1814 के आंग्ल गोरखा युद्ध में विजय के पश्चात 1816 की सुगौली की संधि के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुमाऊँ, देहरादून और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्‍चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसमें उन्होंने टिहरी रियासत की स्थापना की। कुमाऊँ मण्डल तब केवल 2 जिलों में विभाजित था, कुमाऊँ तथा तराई, जिनके मुख्यालय क्रमशः अल्मोड़ा तथा काशीपुर नगरों में स्थित थे। कुमाऊँ जिले के अंतर्गत वर्तमान उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, चम्पावत, पिथौरागढ़, पौड़ी गढ़वाल, चमोली तथा रुद्रप्रयाग जिले के कुछ भाग आते थे, और तराई जिला वर्तमान उधम सिंह नगर जिले के समकक्ष था।

1837 में पूर्वी गढ़वाल क्षेत्र को कुमाऊँ जिले से निकालकर अलग जिला घोषित कर दिया गया, और इसका मुख्यालय पौड़ी नगर में रखा गया। नैनीताल तहसील को 1891 में कुमाऊं जिले से स्थानांतरित कर तराई के साथ मिला दिया गया, और फिर इसके मुख्यालय को काशीपुर से नैनीताल में लाया गया था। 1891 में ही कुमाऊँ और तराई जिलों का नाम उनके मुख्यालयों के नाम पर क्रमशः अल्मोड़ा तथा नैनीताल रख दिया गया था।

1960  के दशक में बागेश्वर और चम्पावत जिले नहीं बनें थे और तब ये अल्मोड़ा जिले के ही भाग थे। पिथौरागढ़ जिला 24 फरवरी 1960 को, और बागेश्वर जिला 24 अगस्त 1997 को अल्मोड़ा जिले से अलग कर बनाया गया था। 2011 में रानीखेत जिले को भी अल्मोड़ा जिले से बनाने की घोषणा हुई थी, परन्तु उस घोषणा को अमल में नहीं लाया गया।

“इन पहाड़ों पर, प्रकृति के आतिथ्य के आगे मनुष्य द्वारा कुछ भी किया जाना बहुत छोटा हो जाता है। यहाँ हिमालय की मनमोहक सुंदरता, प्राणपोषक मौसम और आरामदायक हरियाली जो आपके चारों ओर होती है, के बाद किसी और चीज़ की इच्छा नहीं रह जाती। मैं बड़े आश्चर्य के साथ ये सोचता हूँ की क्या विश्व में कोई और ऐसा स्थान है जो यहाँ की दृश्यावली और मौसम की बराबरी भी कर सकता है, इसे पछाड़ना तो दूर की बात है। यहाँ अल्मोड़ा में तीन सप्ताह रहने के बात मैं पहले से अधिक आश्चर्यचकित हूँ की हमारे देश के लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप क्यों जाते है।” – महात्मा गांधी

नैनीताल (Nanital)

एक पौराणिक कथा के अनिसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमान्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपनी निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि ‘मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी।

अपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल – स्वरुप यज्ञ के हवन – कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।’ जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट – भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी – देवता शिव के इस रौद्र – रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी – देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध को शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया।

परन्तु, सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश – भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ – जहाँ पर शरीर के अंग किरे, वहाँ – वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे ; वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया। तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।

पिथौरागढ़ (Pithoragarh)

यहां के निकट एक गांव में मछली एवं घोंघो केजीवाश्म पाये गये हैं जिससे इंगित होता है कि पिथौरागढ़ का क्षेत्र हिमालय के निर्माण से पहले एक विशाल झील रहा होगा। हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में खास वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहां के किले या कोटों के निर्माण का श्रेय जाता है।

पिथौरागढ़ के आसपास्द चार कोटें हैं जो भाटकोट, डूंगरकोट, उदयकोट तथा ऊंचाकोट हैं। खास वंश के बाद यहां कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, बलबन का समकालीन था। इसी अवधि में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के गांव खङकोट में उनके द्वारा निर्मित ईंटो के किले को वर्ष 1560 में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष 1622 से आगे पिथौरागढ़ पर चंद वंश का आधिपत्य रहा।

पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य विवादास्पद वर्णन है। एटकिंस के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की।

ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष 1437 से 1450) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सौर घाटी पर अधिकार कर लिया एवं वर्ष 1449 में इसे कुमाऊँ या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू या पृथ्वी गोसांई ने पिथौरागढ़ नाम से यहां एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इसका नाम पिथौरागढ़ हुआ।

चंदों ने अधिकांश कुमाऊँ पर अपना अधिकार विस्तृत कर लिया जहां उन्होंने वर्ष 1790 तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय। वर्ष 1790 में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊँ पर अधिकार जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया।

वर्ष 1815 में गोरखा शासकों के शोषण का अंत हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊँ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। एटकिंस के अनुसार, वर्ष 1881 में पिथौरागढ़ की कुल जनसंख्या 552 थी। अंग्रेज़ों के समय में यहां एक सैनिक छावनी, एक चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे। वर्ष 1960 तक अंग्रजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिले का एक तहसील था जिसके बाद यह एक जिला बना। वर्ष 1997 में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला चंपावत बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष 2000 में पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखण्ड का एक भाग बन गया।

गढ़वाल का इतिहास (History of Garhwal)

टिहरी गढ़वाल

टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्‍द ‘त्रिहरी’ से, जिसका अर्थ है एक ऐसा स्‍थान जो तीन प्रकार के पाप (जो जन्‍मते हैं मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्‍द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला।

सन्‌ 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्‍य करते थे जिन्‍हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। ऐसा कहा जाता है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो वर्तमान चमोली जिले में है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्‍य भी उन्‍हें दे दिया। धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्‍य बड़ाती गयीं। इस प्रकार सन्‌ 1803 तक सारा (918 वर्षों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके अधिकार में आ गया। उन्‍ही वर्षों में गोरखाओं के असफल हमले (लंगूर गढ़ी को अधिकार में लेने का प्रयास) भी होते रहे, लेकिन सन्‌ 1803 में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस समय छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिये गये।

धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्‍व बढ़ता गया और इन्‍होनें लगभग 12 वर्षों तक राज किया। इनका राज्‍य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्‍ट इंडिया कम्‍पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्‍य पुनः छीन लिया।

ईस्‍ट इण्डिया कंपनी ने फिर कुमांऊँ, देहरादून और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्‍चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया। राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी नगर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्‍द्र शाह ने इस राज्‍य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्‍द्र नगर स्‍थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन्‌ 1949 तक राज किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी बहुत बढ़चढ़ कर भाग लिया। स्वतन्त्रता के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्‍त होने की इच्‍छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना कठिन होने लगा था।

और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्‍द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना स्वीकर कर लिया। इस प्रकार सन्‌ 1949 में टिहरी राज्‍य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में 24 फ़रवरी 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया।

पृथक राज्य आन्दोलन

मुख्य लेख : उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन

मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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