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कौतिक – कुमाउँनी संस्कृति का अभिन्न अंग

सांस्कृतिक पर्व – उत्सव किसी भी देश की वो रंगीन धरोहर होते हैं जो वहाँ की कलात्मक परंपरा की सोंदर्यता का चित्रण एक अलग ही अंदाज़ में बयान करते हैं. और जब ऐसी कलात्मक संस्कृति का परिचय हो तो भारत उसमे अग्रणी स्थान अर्जित करता हैं. भारत के सभी राज्यों में ऐसी परंपरा के रुझान को सुचारु रूप से सक्रिय रखने में एक अभूतपूर्व उत्सव के तौर कई छोटे और बड़े पैमाने पर समय समय में विभिन्न लोक – सांस्कृतिक पर्वो को मनाया जाता हैं. और यही देश की विभिन्ता में एकता के प्रमाण का सर्वोत्तम उदहारण है. उन्ही में से “उत्तराखंड” लोक – त्योहारों के सम्बन्ध में अपनी एक विशेष पहचान कायम करता हैं. उन्ही लोक – त्योहारों की कलात्मक रूपरेखा को स्थिर करने में “कौतिक” का एक अनूठा स्थान है.

कौतिक उत्तराखंड की परंपरागत विरासत का वो प्राणाधार अंग है, जो संपूर्ण जगत को हमारी संस्कृति के मूल्यों से परिचय कराता आया है. एक वक़्त था जब सभी लोग एकजुट होकर एक अलग ही अन्द्दाज में कौतिक के माध्यम से हैप्पीनेस अवं बंधुत्व रुपी संस्कृति की प्रदर्शनी का प्रमाण संपूर्ण देश को देते थे. ये “कौतिक” रुपी संस्कृति का चिराग लोगो के सोहाद्रपूर्ण मेल – जोल का एक दिलचस्प वातावरण की पृष्टभूमि हुआ करता था. स्वभावतः अभी भी कौतिक हमारे कुमाउँनी समाज की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है. परन्तु हाल ही में पाया गया है की उसमें भागीदारी का निशान लुप्त सा होता जा रहा है. जिसका प्रधान कारण यह है की, जिस तरह की रूचि – अभिलाषा पहले मौजूत थी वह अब नहीं रही. क्योकि “कोतिको” की झाकियों की प्रदर्शनी की रूपरेखा रखने वाला युवा वर्ग का समूह अब “नाईट क्लब्स” एवं “गगनचुम्बी मॉल्स” वाले शहरों की ओर अपना पलायन कर चुका है तथा साथ ही इस महान अतुल्य सभ्यता की विरासत को लगभग भुला चूका है.

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निश्चय ही यदि इस तथ्य को व्यवाहरिक रूप से सत्यता की कसौटी पर रखा जाए तो उस वर्ग का पुनः अपनी सेटल्ड ज़िन्दगी को छोड़ फिर से पहाड़ो में स्थायी सदस्य बनकर बसना मुमकिन नहीं है. किन्तु वह कभी – कभी अपने तथाकथित शहर में बसे उत्तराखंडी परिवार की नयी पीढ़ी, जो इन सांस्कृतिक मूल्यों से अनभिज्ञ है, को कौतिक रुपी मंच में लाकर शहर में पर्वतीय सौगात की एक अनूठी संस्कृति की आत्मा को उनको जीवन में जीवित रख सकता है. इसीलिए, पहाड़ो के वो स्थायी सदस्य या युवा वर्ग जो शहरों की अनित्य चकाचौंद में स्थायी रूप से लीन है, मैं इस लेख के जरिये केवल इतना सन्देश देना चाहता हूँ के आओ मिलकर फिर से चिर निद्रा में सो रही हमारी विरासत रुपी अतुल, अमूल्य संस्कृति का पुनःनिर्माण करे. और ये शुरुआत हम छोटे – छोटे “कौतिक” जैसे संस्कृति के जनक, मूल्यों में शामिल होकर कर सकते है. आओ ‘कौतिको” में खुद एवं अपनी नयी पीढ़ी को शामिल कर इस महान कुमाउँनी संस्कृति के आधारस्तम्भ बिंदु को पुनःजीवित करे.

About Author Ravindra Bhandari
The writer holds MA in English Literature from Jamia Milia University, New Delhi. He is a Teacher & Progressive Educationist and firmly believes that education with right direction can transform the society. His interests include Reading, Writing and Talking to old people.
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