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अल्मोड़ा में स्थित जागेश्वर धाम मंदिर में शिवलिंग का छिपा एक ऐसा रहस्य जिससे हर कोई है अंजान !

जागेश्वर धाम (Jageswar Dham) प्रकृति की गोद में बसा देश का 27 वां राज्य उत्तराखण्ड बेहद ही खुबसूरत और दर्शनीय स्थल हैं। यहां की खुबसूरती का अंदाजा यहां प्रत्येक वर्ष आने वाले असंख्य पर्यटकों से लगाया जा सकता हैं। आज लवदेवभूमि के इस लेख में हम आपको बुद्विजीवियों के शहर जिसे सांस्कृतिक नगरी भी कहा जाता हैं, के एक ऐसे धाम के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे 12 ज्योर्तिलिंगों में से 8 वें ज्योर्तिलिंग का दर्जा मिला हुआ हैं और जिसे छोटे केदारनाथ के नाम से भी जाना जाता हैं।

दोस्तों आपको हमारे द्वारा दी गयी जानकारी कैसी लगती हैं, कृपया कमेंट करके जरूर बताएं। तो चलिए दोस्तों जानते हैं इस धाम के बारे में-ंउचय सावन का पावन महीना और महादेव का नाम ना लिया जाए, ऐसा हो सकता हैं क्या? जी हां दोस्तों, सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से 40कि0मी0 दूर देवदार के सुन्दर घने जंगल के बीच में स्थित महादेव का 8वां ज्योर्तिलिंग स्थापित हैं, जिसे योगेश्वर, तरूण जागेश्वर और बाल जागेश्वर के नाम से भी जाना जाता हैं। कहा जाता हैं कि ये एक ऐसा धाम हैं जहां से लिंग के रूप में महादेव की पूजा सर्वप्रथम प्रारंभ हुयी हैं। इस धाम को उत्तराखण्ड का 5वां धाम भी कहा जाता हैं। इस धाम को महादेव की तपोस्थली भी माना जाता हैं।

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इस धाम के प्रति हिंदू श्रद्वालुओं की अगाध आस्था हैं। पुराणों के अनुसार, यहां साक्षात महादेव और सप्तऋषिओं ने तपस्या की थी। कहा जाता हैं कि प्राचीन समय में इस धाम में मांगी गयी मन्नतें पूरी हो जाती थी जिसका दुरूपयोग होने लगा था। 8वीं सदी में आदिगुरू शंकराचार्य इस धाम में आए और उन्होंने इस दुरूपयोग को रोकने के लिए इस धाम में महामृत्युंजय मंदिर में स्थापित शिवलिंग को किलित कर दिया जिससे यहां बुरी मनोकामना मांगने वालों की मन्नतें पूरी नहीं होती हैं केवल यज्ञ व अनुष्ठान से ही मंगलकारी मनोकामना पूरी होगी। इस धाम के बारे में ये भी कहा जाता हैं कि भगवान राम के पुत्र लव-ंउचयकुश ने यहां यज्ञ आयोजित किया था। इसके लिए उन्होंने यहा सभी देवताओं को आमंत्रित किया था। कहा जाता हैं कि उन्होंने ही सर्वप्रथम इन मंदिरों की स्थापना की थी।

इस धाम की एक मान्यता ये भी हैं कि यहां निःसंतान दंपति महामृत्युंजय मंदिर में आकर अगर मनोकामना करें तो उनकी मनोकामना महादेव पूरी करते हैं। देखा गया हैं कि महामृत्युंजय मंदिर के सामने महिलाएं दीया हाथ में लेकर संतान प्राप्ति के लिए मनोकामना करती हैं। ऐसी मनोकामना विशेष दिन जैसे शिव चर्तुदशी, सावन मास और महाशिवरात्रि के दिन की जाती हैं। इस धाम की स्थापना मुख्यरूप से 8वीं से 14वीं सदी के बीच मानी जाती हैं जो कि पूर्व कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी काल और चंदकाल का समय था। बेहद ही खुबसूरत जागेश्वर धाम वैसे तो देवदारों के असंख्य पेड़ों से घिरा हुआ हैं, लेकिन इस धाम के परिसर में एक देवदार के पेड़ की बनावट ऐसी हैं जिसमें महादेव, माता पार्वती और पुत्र गणेश की छवि देखने को मिलती हैं जिस वजह से इस पेड़ को अद्र्वनारीश्वर कहा जाता हैं।

नंदी और स्कन्दी की सशस्त्र मूर्तियां और दो द्वारपाल मंदिर के प्रवेश द्वार पर देखे जा सकते हैं। इस धाम को बाल जागेश्वर के नाम से जानने के पीछे एक बड़ी दिलचस्प पौराणिक कथा हैं। कहा जाता हैं कि एक बार भगवान शिव यहां ध्यान करने आए थे तो गांव की सारी महिलाएं उनके दर्शनमात्र के लिए एकत्रित हो गयी थी। ये बात जब गांव के पुरूषों को पता चली तो वो नाराज हो गए। तपस्वी जिसने महिलाओं को मोहित किया उसे खोजने के लिए सभी पुरूष इस धाम में आए। इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए महादेव ने एक बच्चे का रूप ले लिया तब से इस धाम में शिव की पूजा बाल जागेश्वर के रूप में की जाती हैं। मंदिर में शिवलिंग 2 भागों में हैं जिसमें से बड़ा भाग महादेव और छोटा भाग मां पार्वती का प्रतिनिधित्व करता हैं। इस धाम में लगभग 250 छोटे बड़े मंदिर हैं।

जागेश्वर मंदिर परिसर में ही 125 छोटे बड़े मंदिरों का समूह हैं जिसमें मां पार्वती, हनुमान जी, महामृत्युंजय, कुबेर भगवान, भैरवदेव, दुर्गा माता और केदारनाथ धाम आदि मंदिरों का निर्माण छोटे बड़े पत्थरों की शिलाओं से किया गया हैं, जिनमें आज भी विधिवत तरीके से पूजा पाठ किया जाता है। इस धाम में बने सारे मंदिर केदारनाथ धाम शैली के हैं। अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्व जागेश्वर धाम पुरातत्व विभाग के अधीन आता है। ये धाम जटागंगा नदी के तट पर बसा हैं। कैलाश मानसरोेवर के प्राचीन मार्ग में स्थित इस धाम के बारे में कहा जाता हैं कि आदिगुरू शंकराचार्य ने केदारनाथ यात्रा के दौरान जागेश्वर धाम के दर्शन किए और यहां कई मंदिरों का जीर्णोधार और पुनःस्थापना भी की।

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ऐसी मान्यता हैं कि यहां स्थापित शिवलिंग स्वयं निर्मित हैं। इस धाम के मंदिर परिसर में एक तालाबीय कुंड स्थित है जिसमें खिले कमल के फूल इस धाम की सुदंरता को और बड़ा देते हैं। सावन के पावन महींने में यहां के बाजार में अलग ही रौनक होती हैं। स्थानीय और बाहरी लोगों द्वारा दुकानें लगायी जाती हैं। इस धाम में 1995 में स्थापित मूर्तिशेड को वर्ष 2000 में संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया जिसमें 9वीं से लेकर 13वीं शताब्दी तक की मूर्तियां रखी गयी हैं।

आशा करता हूँ  कि आपको लवदेवभूमि का ये लेख अवश्य पसंद आया होगा। जय उत्तराखण्ड।

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