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पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा ही है श्राद्ध | Pitru Paksha

Pitru Paksha Hindi

श्राद्ध का मूल आधार है श्रद्धा | Pitru Paksha

ॐ श्री गणेशाय नमः ।। ॐ नमः पूर्वज्येभ्य:।। ॐ श्री ईष्ट देवाय नमः।।

प्रत्येक वर्ष पूर्वजों को तर्पण और उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लिए के हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की सर्वपितृ अमावस्या तक का समय पितृपक्ष (Pitru Paksha) कहलाता है। जीवन मृत्यु ईश्वर के अधीन है। मृत्यु शाश्वत है। मानव शरीर पांच तत्व पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश से मिलकर बना है। जन्म लेने से मृत्यु उपरांत तक भारतीय धर्म में सोलह संस्कार होते हैं। जिसमें मृत्यु के पश्चात अंतिम संस्कार होता है दाह संस्कार। मृत्यु के बाद यह पांच तत्व अपने मूल में विलीन हो जाते हैं। दाह संस्कार में सबसे पहले पृथ्वी को राख के रुप में अपना अंश मिला जाता है। धुआं आसमान में जाता है जिससे आकाश तत्व आकाश में मिल जाता है और वायु तत्व वायु में घुल जाता है। अग्नि शरीर को जलाकर आत्मा को शुद्धि प्रदान करती है और अपना अंश प्राप्त कर लेती है।

दाह संस्कार के बाद अस्थियों को चुनकर पवित्र जल में विसर्जित कर दिया जाता है जिससे जल तत्व को अपना अंश मिल जाता है। जीवात्मा आकाश तत्व का देह धारण कर पितृलोक की ओर गमन करती है। शास्त्रों में पितृ शब्द के दो अर्थ होते हैं। प्रथम पिता तथा द्वितीय सूक्ष्म देहधारी पूर्वज। भारतीय धर्म शास्त्रों में अलग-अलग लोकों का वर्णन है जिसमें नागलोक, गंधर्व लोक, देवलोक आदि इन्हीं में से एक लोक है पितृलोक। मृत्यु के बाद पूर्वजों का मोह अपने परिवार से जुड़ा रहता है तथा उनकी आत्मा अशांत, अतृप्त रहती है। मृत्यु उपरांत मोक्ष प्राप्ति हेतु तथा उनकी प्रसन्नता के लिए शास्त्रानुसार श्रद्धा से उनका सम्मान करना, पिंडदान तथा उनका तर्पण करना अर्थात पूर्वजों के कल्याण हेतु की गई क्रिया, तर्पण, पिंडदान आदि ही श्राद्ध है। श्राद्ध के विभिन्न रूप हैं। नित्य श्राद्ध, नैमितिक श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध तीर्थ श्राद्ध, एकोदिष्ट श्राद्ध, वार्षिक श्राद्ध आदि।

श्रद्धया यत् क्रियते तत्” अर्थात् श्रद्धा से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। जिन पूर्वजों ने अपनी भावी पीढ़ी के कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किया। हमारे सपनों को पूरा करने के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगाया उनका श्रद्धा से स्मरण करना, वह जिस योनि में हो उन्हें दुख कष्ट ना हो, उनको सुख शांति मिले इसके लिए पिंडदान और तर्पण किया जाता है। इसलिए मृत्यु उपरांत पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिए तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए श्रद्धा पूर्वक किया जाने वाला कर्म श्राद्ध कहलाता है।

जो अपने पूर्वजों की खुशी के लिए शास्त्र सम्मत विधान से श्राद्ध तर्पण करते हैं उनके पूर्वज प्रसन्न होकर उन को सुख समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। लेकिन जो पूर्वज अपने पितरों का श्राद्ध तर्पण नहीं करते उनके पूर्वज दुखी और कमजोर बलहीन हो जाते हैं। और अशांत होकर उनकी आत्मा विभिन्न योनियों में भटकती रहती है। अपने ही संबंधियों से वह नाराज हो जाते हैं तथा उनके प्रत्येक कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं। अतः पूर्वजों की खुशी, सदगति के लिए मरणोपरांत उन्हें मोक्ष प्राप्ति के लिए और
उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए श्रद्धा पूर्वक उनका स्मरण किया जाता है।

श्राद्ध का मूल आधार है श्रद्धा

पूर्वजों की शांति के लिए, उनकी आत्मा की शांति के लिए किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। ”श्रद्धा दीयते तत् श्राद्ध” अर्थात श्रद्धा से जो कुछ भी दिया जाए वही श्राद्ध है। श्राद्ध के लिए श्रद्धा और सेवा का भाव होना जरूरी है। श्रद्धा के बिना किसी भी कार्य का महत्व नहीं होता है। पितरों के निमित्त प्रिय भोजन जिस कर्म में दिया जाए वही है श्राद्ध।
हर किसी को मृत्यु के बाद शीघ्र मोक्ष नहीं मिलता और दूसरी योनि नसीब नहीं होती इसलिए मृत्यु तिथि के बाद 1 वर्ष बाद बरसी या वार्षिक श्राद्ध होता है और पूर्वजों का सम्मान सहित श्राद्ध किया जाता है। उसके पश्चात श्राद्ध पक्ष में तथा प्रत्येक वर्ष उनकी पुण्यतिथि को उनका स्मरण कर श्राद्ध किया जाता है।

अस्थिरं जीवनं लोके अस्थिरं धनयौवनम्
अस्थिर‌ं पुत्रदाराद्यं धर्म कीर्ति स्थिरम् ।।

अर्थात संसार में सभी जीवो का जीवित रहना अस्थिर है उनका अर्थ धन यौवन भी अस्थिर है। स्त्री सुपुत्र सुख आदि भी अस्थिर है। लेकिन उसका धर्म,कीर्ति और यश स्थाई होता है। श्रद्धा और पवित्रता से कराया गया भोजन और जल तर्पण ही श्राद्ध का आधार है।

श्राद्ध आश्विन मास में ही क्यों

भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष माना जाता है इन्हें 16 श्राद्ध या महालया श्राद्ध भी कहा जाता है। आश्विन मास में कृष्ण पक्ष या पितृपक्ष में पितरों का महापर्व है। इस समय सभी पितर पृथ्वीलोक पर अपने सगे संबंधियों के घर आते हैं और उनका सम्मान होने पर भोजन ग्रहण करके तृप्त होते हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पुत्र के नाम गोत्र और स्वधा शब्द के उच्चारण के साथ की गई श्राद्ध प्रक्रिया तथा ब्राह्मण भोजन सूक्ष्म अंश सूर्यलोक तक पहुंचता है और वहां से अभीष्ट पितरों के पास पहुंच उन्हें तृप्ति देता है।

श्राद्ध तिथि

श्राद्ध तीन पीढ़ी का होता है। पूर्वजों की पुण्यतिथि अर्थात मृत्यु तिथि के दिन ही श्राद्ध पक्ष में उस तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। मृत्यु तिथि का पक्ष कोई भी हो श्राद्धों में उसी तिथि को श्राद्ध करने का विधान है। यदि किसी के माता-पिता दोनों ना हो तो अष्टमी और नवमी को अर्थात अष्टमी के दिन पिता का और नवमी के दिन माता का श्राद्ध होता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की तिथि याद नहीं है तो वह सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध कर सकते हैं। उनका सर्वपितृ अमावस्या को श्राद्ध होता है। सन्यांसियो का श्राद्ध द्वादशी तिथि को होता है। दुर्घटना या विष आदि से मृत्यु को प्राप्त पूर्वजों का श्राद्ध चतुर्दशी को होता है।

श्राद्ध के अधिकारी

श्राद्ध करने का अधिकार मुख्यतः पुत्र को होता है। एक से अधिक पुत्र होने पर ज्येष्ठ पुत्र को श्राद्ध की क्रियाएं करनी चाहिए। पुत्र द्वारा प्राप्त श्राद्ध से मनुष्य स्वर्ग प्राप्त होता है। भाइयों को अलग-अलग श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। यदि पुत्र ना हो तो सहोदर भाई या पौत्र प्रपौत्र द्वारा श्राद्ध किया जाता है।

श्राद्ध क्यों

शरीर का अंत होते ही आत्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश हो जाता है बहुत बार हम पुनर्जन्म के उदाहरण भी मिलते हैं। शास्त्रों के अनुसार बहुत बार आत्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश करने में विलंब होता है। जो योनि उसके लिए निहित होती है वह पूर्ण नहीं होती इस समय वह आत्मा प्रतीक्षा की अवधि में होती है इसे उसका प्रतीक्षा समय कहा जाता है। इस समय वह आत्मा कुशा की नोक पर रहती है जो कि मनुष्य को प्रतीक्षा समय व जीवनी का पता नहीं होता। इसलिए अपने पूर्वजों को शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति हेतु श्राद्ध कर्म किया जाता है। इसके पीछे पूर्ण श्रद्धा भावना के साथ भगवान से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्ति की कामना की जाती है।

श्राद्ध विधि

श्राद्ध पक्ष में पूर्णतया शुद्ध रहकर तामसिक व मादक पदार्थों के सेवन वर्जित है। श्राद्ध के पहले दिन एक समय भोजन किया जाता है तथा श्राद्ध के दिन श्रद्धा पूर्वक स्वच्छता से सात्विक भोजन बनाते हैं। गौमाता के लिए गौग्रास,पंचग्रास आदि रखकर, थाली में भोजन परोस कर पूर्वजों की फोटो के सामने रखकर उन्हें आमंत्रित कर भोजन ग्रहण करने का आग्रह करते हैं। अपनी कृपा बनाए रखने तथा आशीर्वाद प्रदान करने का आग्रह करें। जिस प्रकार हमारे शरीर के लिए भोजन के बाद पानी पीना आवश्यक है। उसी प्रकार पितरों का श्राद्ध में तर्पण जरूरी है। तीर्थ में तर्पण का विशेष महत्व है। घर पर तर्पण करने के लिए पीतल या ताम्र के पात्र में शुद्ध जल भर कर उसमें काले तिल, दूध आदि डालकर कुश हाथ में लेकर पूर्वजों के निमित्त शुद्ध स्थान पर या पात्र में जल देना चाहिए। उसके बाद ब्राह्मण को भोजन कराएं तथा गौग्रास दें। और कौवे व कुत्ते का अंश दें। स्वयं परिवार सहित भोजन करें। भोजन पश्चात ब्राह्मण को उचित दान दक्षिणा देकर विदा करें।

श्राद्ध के प्रतीक

श्राद्ध में मुख्यतः पवित्रता आवश्यक है। जल्दबाजी और क्रोध में कभी श्राद्ध नहीं करें।

कुश

कुश पवित्र मानी जाती है इसके अग्र भाग में ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु, और अंत में भगवान शिवशंकर का वास होता है। तर्पण में कुशा का प्रयोग किया जाता है। अपवित्र या गिरी हुई कुश श्राद्ध में वर्जित है।

गौ माता

गाय गौमाता में सभी देवी देवताओं का वास होता है। गौ सेवा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। पितरों को पृथ्वीलोक से उनके पितरलोक ले जाने का माध्यम गौ माता होती है।

कौवा

यह पितर प्रतीक तथा यम पक्षी माना जाता है। इसलिए श्राद्ध का एक अंश काक के लिए रखा जाता है। कुत्ता- यह यम पशु होता है। उसे भविष्य की होनी का पहले ही पता लग जाता है। आहट से उसे संभावित होनी मालूम हो जाती है कि क्या होने वाला है। इसलिए एक अंश उसके लिए भी रखा जाता है।
इनका अंश निकालने का उद्देश्य पूर्वजों की मोक्ष की प्राप्ति है।

श्राद्ध में वर्जित

लेखक : पंडित त्रिभुवन कोठारी (ज्योतिषी​)

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