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जानें आखिर, जन्मकुंडली क्या है? इसका क्या लाभ है और कैसे बनाई जाती है !

ॐ श्री गणेशाय नमः ।। ॐ नमः पूर्वज्येभ्य:।। ॐ श्री ईष्ट देवाय नमः।।

ज्योतिष शास्त्र में जन्मपत्री निर्माण बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है। जन्मपत्रिका को जन्मकुंडली भी कहते हैं। इस पर कुछ प्रश्न उठते हैं- जैसे आखिर, जन्मकुंडली है क्या? इसका क्या लाभ है?  क्यों कुछ लोग इसमे विश्वास नहीं रखते?  कुछ तो इसे अंधविश्वास मानते हैं, पर अपने ऊपर कोई समस्या आने पर वे भी ज्योतिषियों के पास जाते है। चलिए  जानते हें  जन्मकुंडली के बारे में

जन्मकुंडली (Janmkundali)


ज्योतिष का क्षेत्र काफी बड़ा है। जन्मकुंडली या जन्मपत्रिका जातक के जन्म के समय ग्रहों की आकाशीय स्थिति होती है, जो आकाश मंडल में स्थित होते हैं।
जन्म के समय ग्रहों की आकाशीय स्थिति की छायाप्रति ही जन्म कुंडली है। जन्म कुंडली आकाश का उस समय का नक्शा है, जब कोई बच्चा जन्म लेता है। उस समय आकाश में कौन सा ग्रह कहां है, इसका वर्णन जन्मकुंडली में होता है। जन्म कुंडली में स्थित नौ ग्रह और बारह राशियां ही मनुष्य जीवन को प्रभावित करते हैं जिसे एक निश्चित स्वरूप में कागज पर उतारते हैं, यही जन्मकुंडली है। यह भविष्य में होने वाले घटनाक्रम का लेखा-जोखा है।

जन्म कुंडली निर्माण ( जन्मपत्री रचना ) काफी महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि ज्योतिष का आधार ही जन्मपत्री रचना होती है। जब तक यह पूर्णतया सही न बने तब तक फल कथन में प्रमाणिकता नहीं आती है। अतः सही जन्मपत्रिका की रचना के लिए गणितीय सूत्र, गणितीय प्रक्रिया में दक्ष होना आवश्यक है। यदि गणितीय प्रक्रिया ही गलत हुई तो फल कथन भी अशुद्ध होगा। अतः ज्योतिषी, जो जन्म कुंडली बनाता है उसे गणित के क्षेत्र में दक्ष होना चाहिए। इसी आधार पर सही फलादेश किया जाता है।


जन्म कुंडली निर्माण के लिए मुख्यतः तीन चीजें सही ज्ञात होनी चाहिए

1- जन्म दिनांक
2- जन्म समय
3- जन्म स्थान

समय के थोड़े से अंतर से जन्म कुंडली के फलादेश में बहुत अंतर हो सकता है क्योंकि 1 दिन में जन्म लेने वाले व्यक्तियों में सब अलग-अलग होते हैं। कोई सफल उद्यमी, राजनेता, अभिनेता, अधिकारी, राजा तो कोई उसके विपरीत निम्न जीवन स्तर, जीवन में संघर्ष करता है। हर जगह के अक्षांश देशांतर में अंतर होता है। इस से स्थानिक सूर्योदय में अंतर होता है। और इष्टकाल में परिवर्तन होता है। अतः जन्म स्थान भी सही होना जरूरी है। सही जन्म कुंडली के लिए इन तीनों के द्वारा सही इष्टकाल ज्ञात किया जाता है। इस आधार पर संपूर्ण गणितीय विधि द्वारा कुंडली बनती है।

जन्मकुंडली अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग प्रकार से बनती है जैसे आधुनिक ज्योतिष विधि, वैदिक भारतीय ज्योतिष विधि, पाश्चात्य ज्योतिष विधि। भारतीय ज्योतिष में स्थानों के अनुसार भी अलग-अलग विधि होती है जैसे उत्तर भारतीय विधि, दक्षिण भारतीय विधि। यह अलग-अलग प्रकार से अलग विधियों से कुंडली बनाते हैं। शंका और समस्या हर किसी के जीवन में होते हैं और हर कोई अपने भविष्य को जानने को उत्सुक रहता है सब में जिज्ञासा होती है कि वह अपने भावी जीवन के बारे में सही से जाने और उसे उचित प्रकार सही दिशा में मोड़े। ज्योतिष द्वारा पूर्व में हुई घटना और भविष्य में होने वाली घटनाओं संबंधित जानकारी प्राप्त की जाती है। जीवन का लिखित रूप ही जन्म कुंडली होती है।

क्यों कहा जाता है जन्म कुंडली (Janmkundali)


जिस प्रकार सर्प अपने शरीर को गोल आकार में कुंडली के रूप में अपने को बांधे रखता है उसी प्रकार जन्म कुंडली भी लंबी बनी होती है और गोलाकार लपेटी रहती है इसमें 9 ग्रह, 12 राशियों और जन्म लग्न, चंद्र लग्न आदि के द्वारा संपूर्ण जीवन संबंधित प्रक्रिया को एक क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है इसलिए इसे जन्मकुंडली कहते हैं। वर्तमान में इसे पत्रिका के रूप में कंप्यूटरीकृत रूप में निकाला जाता है, अतः इसे जन्मपत्रिका भी कहा जाता है।

जन्मकुंडली

जन्मकुंडली या जन्मपत्रिका में ग्रह स्थिति से जीवन में होने वाली घटनाओं, शुभ-अशुभ घटनाओं को ज्ञात किया जाता है। जन्मपत्री का स्वरूप स्थानों के अनुसार अलग-अलग प्रकार का होता है। ज्योतिष में नौ ग्रह मुख्य होते हैं इनमें सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि यह मुख्य 7 ग्रह होते हैं तथा राहु और केतु दो छाया ग्रह होते हैं। जिस प्रकार रोशनी होने पर किसी व्यक्ति की छाया हमेशा उसके साथ रहती है, उसी प्रकार जीवन में जन्म कुंडली के 7 ग्रहों के साथ इन दो छाया ग्रहों का भी प्रभाव पड़ता है। इसके साथ 12 राशियां मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन होती है।

इनके आधार पर जीवन के संपूर्ण रूप को 12 भागों/भावों में बांटा गया है जिसमें मुख्य लग्न भाव या प्रथम भाव है यह मुख्यतः शरीर से संबंधित है। दूसरा भाव धन संबंधी, तीसरा भाव भ्रातृ- बंधु संबंधी, चौथा भाव माता,जीवन सुख संबंधी, पांचवां भाव विद्या/ संतान संबंधी, छठा भाव रोग शत्रु सम्बन्धी, सातवां भाव जीवन संबंधी, आठवां भाव मृत्यु का, नौवां भाव भाग्य भाव, दसवां भाव राज्य,राजसेवा का, ग्यारवां लाभ का और बारहवां भाव व्यय से संबंधी होता है।

इष्टकाल को ज्ञात करने के पश्चात लग्न ज्ञात किया जाता है। लग्न जानने की अनेक विधियां है। स्थूल सूक्ष्म विधियों तथा स्थानीय पंचांग में भी लग्न सारणी दी जाती है लग्न, प्रथम भाव होने के साथ ही शरीर से को संपूर्ण जीवन से संबंधित है। अतः इसके सही होने से ही सही जन्मपत्री का विवेचन होता है। लग्न राशि के अनुसार ही संपूर्ण जीवन प्रभावित होता है।
लग्न राशि के अनुसार ही संपूर्ण जीवन प्रभावित होता है। लग्न भाव ज्ञात होने पर इसे प्रथम भाव में रखने पर अन्य राशियों को क्रम से वामावर्त दिशा ( घड़ी की सुई के विपरीत दिशा में ) में स्थापित करते हैं। ही है इसके बाद इन भावों में जन्म समय के आधार पर ग्रहों की आकाश मंडल में स्थिति के अनुसार नौ ग्रहों को स्थापित किया जाता है। जिस राशि में चंद्रमा होता है वह जन्म राशि होती है।

जन्मकुंडली के प्रकार (Types of Janmkundali)


जन्म कुंडली विभिन्न प्रकार की होती है । मुख्यतया यह दो प्रत्यक्ष ग्रहों के आधार पर बनती है। दो प्रत्यक्ष ग्रह सूर्य और चंद्रमा। इनके आधार पर सूर्य कुंडली और चंद्र कुंडली का निर्माण होता है। इनके अन्तर्गत दैनिक कुंडली, साप्ताहिक कुंडली, मासिक कुंडली, वार्षिक कुंडली, वर्ग कुंडली, नवमांश कुंडली, प्रश्न कुंडली आदि होती है लेकिन सही फलादेश के लिए मुख्यतः जन्म लग्न कुंडली का प्रयोग किया जाता है और चंद्र कुंडली का प्रयोग किया जाता है

जीवन के अलग-अलग विषय के आधार पर मुख्यतः निम्न प्रकार की कुंडली बनाई जाती है


जन्मकुंडली के अंतर्गत की जाने वाली गणना


जन्मकुंडली के अंतर्गत जीवन के अनेक विषयों से संबंधित गणनाएं होती हैं। जिनके द्वारा सही फलादेश किया जाता है। जो निम्न प्रकार हैं।
जन्मकालिक तिथि, वार, नक्षत्र,योग, करण, राशि, लग्न संबंधित गणनाएं। होरा चक्र, नवग्रहों की अंशात्मक स्थिति, उदय-अस्त, मार्गी-वक्री, ग्रहों की अवस्था आदि, षड्वर्ग साधन, अष्टकुंडली हेतु श्रीधराचार्य क्रम न्यास:, लग्न कुंडली, अष्ट कुंडली, नक्षत्र, योग, करण, आदि पर आधारित फल, विंशोत्तरी दशा, योगिनी दशा, अष्टक वर्ग, दिशारेखा ज्ञानचक्र, आयुर्दाय, अवस्था रेखा ज्ञान, सुदर्शन चक्र, द्वादश ससंधि भाव चक्र, सूर्य कालानल चक्र, चंद्र कालानल चक्र, कोटचक्र या दुर्गचक्र, चलित भावचक्र, मूलांक, भाग्यांक, रत्न आदि विवरण, विंशोत्तरी अंतर्दशा, योगिनी अंतर्दशा, जन्म कुंडली के फलित बिंदु आदि।

लेखक : पंडित त्रिभुवन कोठारी (ज्योतिषी​)

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