उत्तराखंड के इस गांव की पनीर के व्यवसाय ने बदल दी तस्वीर

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पलायन ज्यादा देखने को मिलता है। लेकिन यहां पर एक ऐसा भी गांव है जहां पलायन न के बराबर होता है और यह गांव आसपास के गाँव के लोगो के लिये एक मिसाल बनकर उभरा है। पहाड़ों की रानी कहे जाने वाली मसूरी से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह गांव आज पनीर वाले गांव के नाम से मशहूर है। टिहरी गढ़वाल जिले के धनोल्टी तहसील में रौतु की बेली नाम का एक गांव पनीर के लिए प्रसिद्ध है। 

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इस गांव में लगभग 250 परिवार रह रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर लोग पनीर बेचते हैं। प्रत्येक परिवार को इस व्यवसाय से 15 से 30 हजार प्रति माह की आमदनी हो रही है। देहरादून – उत्तरकाशी बायपास मार्ग पर बसे इस गांव मे पनीर खरीदने के लिए लोगों की लाइन सुबह से ही लग जाती है और दोपहर होते-होते गांव की सभी पनीर बिक जाती है।

वैसे तो उत्तराखंड के ज्यादातर पहाड़ी गांव बेहद छोटे छोटे से होते हैं और उनमें रौनक बहुत कम ही देखने को मिलती है। लेकिन इस गांव की रौनक और संपन्नता दूर-दूर से देखी जा सकती है। गांव के लोगों ने अपने घर में या आसपास अपनी दुकान बना ली है। यहां पर पनीर बड़ी शान से गाँव वाले बेचते हैं। गांव की महिलाएं तो इस काम में पुरुषों से आगे देखी जा रही हैं।

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सुचिता रावत इसी गांव की एक महिला है। वह बताती हैं कि इस गांव के पहचान पनीर की वजह से है। अब इस गांव से सीख लेकर दूसरे गांव के लोग भी अपने यहाँ पनीर बना कर बेच रहे हैं।

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मेहनत का फल


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इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने और उसे बेचने का काम कुंवर सिंह पवार के पिता ने शुरू किया था। वह अपने पिता हाकम सिंह रावत काहे व्यवसाय आगे बढ़ा रहे है। उनके पिता हाकम सिंह रावत 1980 से पनीर बेचना शुरू किया था। उस समय पनीर की कीमत 4 – 5 रुपये हुआ करती थी। उस दौर में पनीर को घोड़ो और खच्चरों से मसूरी और चंबा जैसे शहरों में ले जाकर बेचा जाता था। 60 वर्षीय दिलीप सिंह भंडारी बताते हैं कि 1975 के पहले तक इस गांव के लोग पनीर कैसे बनती है यह भी नही जानते थे। ज्यादातर लोग अपने मवेशियों को ले जाकर दूध बेचते थे। पर जब से इस गांव में पनीर बनना शुरू हुआ गांव की तस्वीर ही बदल गई है। इसी गांव के एक अन्य शख्स 25 वर्षीय विकास रावत कहते हैं कि वह हर 2 दिन में पनीर बेचने जाते हैं। पहले वह देहरादून के होटलों में काम करते थे। लेकिन जब कोरोना वायरस महामारी की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लग गया तब से वह घर पर रह रहे हैं और परिवार के साथ खेती-बाड़ी कर रहे हैं। इसी बीच अतिरिक्त कमाई के लिए उन्होंने पनीर बेचना शुरू किया।

आसान नहीं थी डगर


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65 वर्षीय विजेंद्र सिंह बताते हैं कि वह पिछले 20 सालों से पनीर बना कर बेच रहे है। इसमें काफी मेहनत लगती है। विजेंद्र कहते हैं कि 5 लीटर दूध में 1 किलो पनीर बनती है। वही एक भैंस की कीमत 60 से 90 हजार तक होती है। ऐसे में दूध देने तक जानवरों को खिलाना काफी महंगा हो जाता है। चारे के लिए घर की महिलाओं को रोज आसपास के जंगलों में जाकर चारा लाना पड़ता है। बर्फबारी की वजह से कई बार सर्दियों के मौसम में चारा नही ला पाते हैं तो वो लोग पहले से ही चारा इकट्ठा करके रखते हैं। गांव में जानवरों का कोई डॉक्टर नही है। ऐसे में जब जानवर बीमार होते हैं तो 20-25किमी दूर से डॉक्टर बुलाना पड़ता है।

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 इस गांव के लगभग हर परिवार की शुरुआत सुबह-सुबह अपनी गाय भैसों का दूध दुहने से शुरू होती है। पनीर की अच्छी गुणवत्ता के लिए ये लोग पहले दूध को अच्छी तरीके से छान लेते हैं और उसके बाद आगे का प्रोसेस करते हैं। पहाड़ पर बनने वाले पारंपरिक चूल्हे में लकड़ी जलाने के बाद दूध को एक बार बर्तन में डालकर पनीर बनाते हैं। सारे प्रोसेस करने में लगभग 2 घंटे की मेहनत के बाद पनीर बनकर तैयार होती है। पनीर के बिकते पर हर परिवार की जरूरत की चीजें खरीदना आसान हो जाता है। वे इसे बेचकर अपने हर जरूरत पूरी कर लेते हैं। आज यह गांव अपनी मेहनत के बल पर अपनी पहचान बना चुका है और दूसरे गाँव के लोगों के लिए एक मिसाल बन गया है। पलायन की समस्या से जूझ है उत्तराखंड के लोगों के लिए यह गांव एक उम्मीद की किरण जैसे है जिससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिल रही।

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