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जागर का महत्व: उत्तराखंड में इनके बुलाने पर देवताओं को आना पड़ता है

जागर का महत्व

देवभूमि में जागर का महत्व

उत्तराखंड ‌को ऐसे ही देवभूमि नहीं कहा जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार समस्त 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास यहीं है। इन सभी देवी-देवताओं का हमारी संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि ये देवी-देवता हर कष्ट का निवारण करने के लिये किसी पवित्र शरीर के माध्यम से लोगों के बीच आते हैं और उनका कष्ट हर लेते हैं। 

जागर उत्तराखण्ड के गढ़वाल और कुमाऊँ मंडलों में प्रचलित पूजा पद्धतियों में से एक है। पूजा का यह रूप नेपाल के पहाड़ी भागों में भी बहुप्रचलित है। इससे मिलती-जुलती परम्पराएं भारत के कई आदिवासी इलाकों में भी चलन में हैं। कुमाऊं और गढ़वाल मंडल में पूर्वजों के मृत होने के बाद उन्हें दोबारा बुलाने और कुल देवी-देवताओं का आह्वान करने के लिए जिस पूजा विधि का आयोजन किया जाता है उसी को जागर कहा जाता है। 

जागर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका अर्थ है जागना अर्थात् जागर द्वारा देवी, देवताओं और पूर्वजों को जगाया जाता है और इनके जागने के बाद पूजा में मौजूद लोग इनसे अपनी परेशानियों का समाधान पूछते हैँ। जागर मंदिर अथवा घर में कहीं भी लगाया जा सकता है।

आज जागर को सांस्कृतिक और संगीत विरासत के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह अभी भी अत्यधिक विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिष्ठित है। जागर में हुड़का, ढोल, दमाऊ, थाली आदि उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। जिन्हें बजाने के बाद ही स्थानीय देवी-देवता अवतरित होते हैं। भजनों के जरिए पूर्वजों की आत्मा या फिर देवी देवताओं को जगाया जाता है। जागर में भजन गाने वाला जगरिया कहलाता है और जिस व्यक्ति पर ये पवित्र आत्माएं अवतरित होते हैं उन्हें डंगरिया या फिर देवताओं की सवारी कहा जाता है।

पूर्वजों की आत्मा जिस व्यक्ति पर आती है उसके लिए विशेष गद्दी लगाई जाती है। इस पूजा से पूर्वजों की आत्मा के साथ ही कुल देवी और देवताओं की आत्मा किसी अन्य पुरुष या महिला पर अवतरित होती है, जिन्हें यहां भगवान मानकर पूजा जाता है।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में ग्राम देवताओँ की पूजा का विशेष महत्व है। यहां के ग्राम देवताओं में गोल्ज्यू, सैम, कलबिष्ट, हरु, भूमिया, चौमू, महासू, नंदा, लाटू, गंगनाथ, भनरीया, काल्सण आदि देवता प्रमुख हैं।

जागर के प्रकार

जागर का आयोजन सामान्यतया चैत्र, आसाढ़ व मार्गशीर्ष महीनों में एक, तीन अथवा पांच रात्रि के लिए किया जाता है। सामुहिक रूप से कई जगह ‘धूनी’ जलाकर भी जागर लगाई जाती हैं।

जागर दो प्रकार के होते हैं। पहला देव जागर और दूसरा भूत जागर
देव जागर में स्थानीय देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। भूत जागर में किसी मृत व्यक्ति की आत्मा का आह्वान किया जाता है।
जागर “बाइसी” तथा “चौरास” दो प्रकार के होते हैँ।
बाइसी में बाईस दिनों तक जागर किया जाता है। कहीं-कहीं दो दिन के जागर को भी बाईसी कहा जाता है।
चौरास मुख्यतया चौदह दिन तक चलता है। कहीं कहीं चौरास को चार दिनों में ही समाप्त किया जाता है।

जागर लगाने की प्रक्रिया

जागर की पूरी प्रक्रिया में साफ-सफाई व आचरण की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जागर में धूणी यानी धूनी जलाने के लिए लोग शुद्ध होकर पंडित जी की अगुवाई में शुद्ध स्थान का चयन किया जाता है। फिर उस स्थान पर गौ-दान किया जाता है तथा गोलाकार भाग में थोड़ी सी खुदाई कर वहां पर लकड़ियां रखी जाती हैं। लकड़ियों के चारों ओर गाय के गोबर और शुद्ध स्थान की लाल मिट्टी से लीपा जाता है। स्योंकार द्वारा यहां पर दीप जलाया जाता है, और शंखनाद कर धूनी को प्रज्जवलित किया जाता है। इस धूनी में किसी भी अशुद्ध व्यक्ति के जाने और जूता-चप्पल लेकर जाने का निषेध होता है।

जागर के पात्र

जागर में “जगरीया” मुख्य पात्र होता है। जो रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों की कहानियों के साथ ही जिस देवता को जगाया जाना होता है उस देवता के चरित्र का स्थानीय भाषा मेँ वर्णन करता है। जगरीया हुड़का, ढोल तथा दमाउ बजाते हुए कहानी लगाता है। जगरिया के साथ में कई लोग और होते हैं जो जगरिया के साथ जागर गाते हैँ, और कांसे की थाली को नगाड़े की तरह बजाते हैं।

इस दौरान जगरिया रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों की कहानियों के साथ ही स्थानीय व लोक तथा कुल एवं ग्राम इष्ट देवताओं या ‘ग्राम देवताओं’ में से जिस देवता को जगाना होता है उस देवता की गाथाओं का बखान करता है। 

जागर का दूसरा पात्र होता है “डंगरिया“। डंगरिया के शरीर में देवता आते है। जग‌रिया के जगाने पर डंगरिया कांपता है और जगरिया के गीतोँ की ताल मेँ नाचता है। डंगरिया के आगे चावल के दाने रखे जाते हैं, जिसे हाथ में लेकर डंगरिया लोगों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का जवाब देता है। डंगरिया स्त्री और पुरूष दोनों हो सकते हैं। 

जागर का तीसरा पात्र होता है स्योंकार स्योंकार उसे कहा जाता है जो अपने घर अथवा मंदिर में जागर कराता है। जागर कराने से स्योंकार को इच्छित फल प्राप्ति होती है, ऐसा विश्वास किया जाता है।

जागरों में कुमाऊं की प्रसिद्ध प्रेम लोकगाथा राजुला मालूशाही का भी जिक्र आता है। जो कुमाऊं के तत्कालीन इतिहास को भी बयां करती हैं। खास बात यह भी है कि जागर के माध्यम से न केवल व्यक्तिगत बल्कि भारतीय संस्कृति की मूल व अभिन्न भावना ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का भी पालन किया जाता है तथा प्रकृति के संरक्षण की भी कामना की जाती है।

जागर को सामान्यतया कोई व्यक्ति अकेले नहीं आयोजित कर सकता बल्कि उसे अपने पूरे कुटुंब और पूरे गांव को साथ लेकर यह आयोजन करना होता है। इस तरह यह आज के एकल परिवार में टूटते समाज को साथ लाने का एक माध्यम भी बनता है और इसके जरिए समाज में सामूहिकता की भावना भी बलवती होती जाती है।

लेकिन किसी कारणवश सभी लोगों के एक साथ एक अवधि में ना जुट पाना भी इस विधा के छूटने की एक बड़ी वजह है। इस प्रकार यह ऐतिहासिक धरोहरें भी हैं, जिन्हें सहेजने की जरूरत महसूस की जाती है। इस लेख के जरिए मेरी एक कोशिश ये भी है कि ऐसी धरोहरे और ऐसे देव दूतों को जो आज के समय में लुप्त होते जा रहे है, सहेजने की जरूरत है। दोस्तो ये उत्तराखंड की एक धरोहर हैं। इसको सहेजने के लिए हमने एक कोशिश की है, आप भी इस धरोहर को अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करके पहुंचाने में अपना योगदान दें और उत्तराखंड को देवभूमि बनाए रखने में अपना योगदान दें।

आशा करता हूं कि आपको ये लेख अवश्य पसंद आया होगा।

।। जय उत्तराखंड ।।

 

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